कहानी संग्रह >> शेखर जोशी संकलित कहानियां शेखर जोशी संकलित कहानियांशेखर जोशी
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स्वयं चयनित छब्बीस कहानियों का संकलन- शेखर जोशी संकलित कहानियां
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बीसवीं शताब्दी के छठे दशक को आज भी हिन्दी कहानी के उर्वर दौर के रूप में याद किया जाता है। वह दौर ‘नई कहानी’ आन्दोलन का दौर था। शेखर जोशी (1932) उस दौर के सशक्त प्रतिनिधि हैं, जो निरन्तर अपनी कथा-रचना को ताजा और जनसंवेदी बनाए रखने में तत्पर और सावधान रहे हैं। इस तत्परता और सावधानी के क्रम में उनमें कहीं बड़बोलापन या मान्यता छीन लाने की व्याकुलता नहीं दिखी। न तो उनके आचरण में, न ही कथा-कौशल में। एकदम से धीर, थिर चित से चली जा रही कहानियां उनके यहां सरल किस्सागोई के साथ उपलब्ध हैं। उनकी कहानियों से परिचय करते हुए कथाकार का यह निर्लिप्त संकोच दिखता रहता है—कहानियों के भीतर भी और कथाकार के रूप में कहानियों के बाहर भी। उनकी कहानियों में वस्तुपरकता के स्तर पर कथाकार के सामाजिक सरोकार, और प्रस्तुति के स्तर पर पाठकों की समझ पर आस्था भरी हुई है। अपनी कहानियों को झटका देकर महत्त्वपूर्ण बनाने और पाठकों की आंखों में चमक भरने की कोशिश से कथाकार को सदा परहेज रहा है। शेखर जोशी : संकलित कहानियां उनकी ऐसी ही छब्बीस कहानियों का संकलन है। चयन कथाकार ने स्वयं किया है।
भूमिका
बीती सदी का छठा दशक हिन्दी कहानी के अत्यंत उर्वर दौर के रूप में आज भी
याद किया जाता है। अगर हिन्दी के दो दर्जन प्रतिनिधि कहानीकारों की
फेहरिस्त बनाई जाए, तो उसमें एक तिहाई से ज्यादा नाम वही होंगे जिनकी
ताजगी-भरी रचना-दृष्टि ने पचास के दशक में कहानी की विधा को साहित्य की
परिधि से उठा कर केंद्र में प्रतिष्ठित कर दिया। उस उभार को अविलम्ब
‘नई कहानी’ की संज्ञा के साथ एक आंदोलन का दरजा हासिल
हो गया
था।
दबे पांव चलने वाली कहानियां के सृजेता शेखर जोशी उसी उभार के एक सशक्त प्रतिनिधि हैं। उनका शुमार ‘नई कहानी’ में सामाजिक सरोकारों का प्रतिबद्ध स्वर जोड़ने वाले कहानीकारों में होता है। ‘दाज्यू’, ‘कोसी का घटवार’, ‘बदबू’, ‘मेंटल’ जैसी उनकी कहानियों ने न सिर्फ उनके मुरीदों और प्रशंसकों की एक बड़ी जमात तैयार की है, बल्कि ‘नई कहानी’ की पहचान को भी अपने तरीके से प्रभावित किया है। पहाड़ी इलाकों की गरीबी और कठिन जीवन-संघर्ष; उत्पीड़न, यातना, प्रतिरोध, उम्मीद और नाउम्मीदी से भरे औद्योगिक मजदूर वर्ग के हालात; शहरी-कस्बाई निम्न और मध्यम मध्यवर्ग के आर्थिक-सामाजिक-नैतिक संकट; धर्म और जाति से जुड़ी घातक रूढ़ियाँ; दैनन्दिन स्थितियों का वर्गीय चरित्र-ये सभी उनकी कहानियों का विषय बनते रहे हैं। ‘मूड’ को आधार बनाने की बजाय घटनाओं और ठोस ब्यौरों में किस्सा कहने वाले शेखर जोशी ने इन सभी विषयों को लेकर ऐसी कहानियां लिखी हैं, जो एक ओर विचार-केंद्रित कृतिम गढ़ंत से मुक्त हैं, तो दूसरी और ‘अनुभव की प्रामाणिकता’ और ‘भोगा हुआ यथार्थ’ के संकरे आशय से भी। इस लिहाज से वे अमरकांत और भीष्म साहनी की तरह घातक अतियों से कहानी का बचाव करने वाले रचनाकार हैं।
शेखर जोशी हिन्दी के सबसे मितभाषी कथाकारों में से हैं। उनका कुल लेखन बमुश्किल दो स्वस्थ जिल्दों के लायक है। उपन्यास की जमीन पर उन्होंने खाता ही नहीं खोला और कहानियों की संख्या भी शतक से काफी पीछे है—संकलित और असंकलित, सब मिलाकर साठ-पैंसठ के करीब। ये तो शुक्र है कि साहित्य की दुनिया में क्रिकेट का तर्क नहीं चलता, वरना वे इस दुनिया से कब के निकाल बाहर किए जाते !
लेखन का अल्प-परिणाम शेखर जी की मितभाषित का शायद एक और गौरतलब पहलू है। वे वाचक के रूप में अपनी कहानियों के भीतर और कहानीकार के रूप में कहानियों के बाहर भी अधिक नहीं बोलते। यह संकोच उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की पहचान का महत्त्वपूर्ण घटक है...उनकी विशिष्ट पहचान बनने के रास्ते में शायद सबसे बड़ी बाधा भी। मधुरेश जैसे वरिष्ठ कथा-आलोचक को ‘उनके कृतित्व में किसी किस्म की रचनात्मक छलांग का अभाव’ दिखलाई पड़ता है और ऐसा लगता है कि ‘उनके आगे न तो रचनात्मक स्तर पर ही कभी कोई बड़ी चुनौतियां रहीं और न ही अपने सारे वैचारिक आग्रहों के बावजूद संघर्ष और विचार के ऐसे सतेज और प्रखर मुद्दे रहे जो रचनात्मकता में एक अनोखी चमक पैदा करते हैं (नयी कहानी : पुनर्विचार, प्रथम संस्करण: 1999, नेशनल पब्लिसिंग हाउस, नयी दिल्ली, पृ. 178), तो इसका एक बड़ा कारण शेखर जोशी का कम बोलनेवाला और दावेदारी के स्तर पर एक तरह का दब्बूपन बरतनेवाला कथाकार व्यक्तित्व है—ऐसा कथाकार व्यक्तित्व, जो अपने अदृश्य रहने को ही सबसे बड़ा मूल्य मानता है और इसके लिए जो कुछ जरूरी जान पड़े, करता है। मसलन—जिन स्थलों पर सामान्यतः दूसरे लेखकों को ज्यादा शब्दों, ब्यौरों, इशारों, बलाघातों की जरूरत महसूस होती है, वहां से बगैर किसी विशेष ताम-झाम के गुजर जाना; कथा-स्थितियों के अर्थगर्भत्व और स्मृद्धि को समझने/सराहने के लिए पाठक को कोई ‘सर्फेस टेंशन’, ‘धक्का’ या ‘सुराग’ न देना; वाचक की मुद्रा में एक सादगी और साधारणता को बज़िद बनाए रखना, इत्यादि।
ऐसे में ‘बदबू’ ‘मेंटल’, ‘बच्चे का सपना’, ‘नौरंगी बीमार है’, ‘समर्पण’, ‘निर्णायक’, ‘गलता लोहा’, ‘हलवाहा’ जैसी कहानियों के होते हुए भी किसी को ‘रचनात्मकता में एक अनोखी चमक पैदा’ करनेवाले ‘संघर्ष और विचार के सतेज और प्रखर मुद्दों’ का अभाव उनमें दिखलाई दे, तो क्या हैरत !.....वस्तुतः शेखर जोशी की कहानियों का निर्वाह प्रकटतः कलात्मक होने के बजाय उनकी प्रस्तुति की मुद्रा में कोई गहरी बात करने की दावेदारी है। ये कम बोलने और आहिस्ता बोलनेवाली कहानियां हैं—ऐसी कहानियां जो अपने पाठक का सम्मान करती हैं, ज्यादा समझा कर उसकी समझ एवं संवेदनशीलता के प्रति अविश्वास प्रकट नहीं करती, साथ ही, ‘दिखनेवाली’ कलात्मकता से अछूती हैं, जो कि अंतर्वस्तु की गुणवत्ता के प्रति लेखक के पुख्ता आत्मविश्वास का सूचक है।
शेखर जोशी की कई कहानियों को इन बातों के उदाहरण की तरह पढ़ा जा सकता है। फिलहाल इस संग्रह में संकलित एक कहानी ‘समर्पण’ को लें ! यहां लेखक ने प्रतीक-केन्द्रित सामाजिक संघर्ष की गतिकी को जिस तरह से चिह्नित किया है, वह असाधारण है। यज्ञोपवीत-धारण के लिए चलनेवाले अभियान की पूरी प्रक्रिया, उसकी शक्तियां और सीमाएं तथा विचारधारात्मक वर्चस्व की टिकाऊ बनावट—इन सबको एक कहानी में समेटना कोई साधारण बात नहीं ! पर शेखर जोशी का यह ‘समेटना’ इतना असहनीय है कि कहानी की असाधारणता उसमें छुप-सी जाती है और उसे इकहरे तरीके से पढ़ना सिर्फ इसलिए मुमकिन हो जाता है कि लेखक की कथन-भंगिमा उस इकहरे पठन को कहीं से हतोत्साहित नहीं करती। पूरी कहानी प्रतीक पर केंद्रित संघर्ष (नीची जातियों द्वारा जनेऊ-धारण) के उभार और उतार का बयान है और इस सिलसिले में वह प्रतीक-केंद्रित संघर्ष की शक्तियों को विलक्षण तरीके से रेखांकित करने के साथ-साथ उसकी भयावह सीमाओं को भी सामने लाती है। एक आदर्श संतुलन के साथ वह इस बात को चिह्नित करती है कि अगर सामाजिक प्रतीकों की लड़ाई ठोस उत्पादन-संबंधों से जुड़ी लड़ाई का हमकदम या हिस्सा बन कर नहीं आती, तो अपनी पूरी नैतिक शक्ति के बावजूद वह कमोबेस ऐसे ही ट्रैजिक-कॉमिक अंत को प्राप्त होने के लिए अभिशप्त है। ‘सेवक जी की अमृतवाणी मन को संतोष दे गई थी, पर तन को संतोष नहीं दे पाई।’ और इसी चीज ने उस व्यापक जागृति की रीढ़ तोड़ कर रख दी, जिसे देख ‘पर-पौरुख पर निर्भर दीवान वंश के कीर्तिस्तंभ की नींव’ मालिक लोगों को हिलती प्रतीत होने लगी थी। कितनी बड़ी विडंबना है कि मालिक लोगों के बगैर कुछ किए उनकी यह शंका ‘धीरे-धीरे स्वतः ही निर्मूल सिद्ध होने लगी !’ अंततः भेदभाव के जिस प्रतीक को अपने शरीर पर धारण कर शिल्पकारों-हलवाहों ने उसका भेदभावमूलक प्रतीकार्थ नष्ट करना चाहा था, उसे अपने ही हाथों उतार फेंका।
‘गलता लोहा’, ‘बच्चे का सपना’, ‘निर्णायक’ आदि कहानियां भी इसी श्रेणी में आती हैं। गल कर एक नया आकार लेनेवाले धातु की तरह जातिगत पहचान का स्थान वर्गीय पहचान ले रही है, इस कथ्य को बहुत महीन तरीके से सामने लाती है ‘गलता लोहा ’ कहानी। जातिवादी एकजुटता के छद्म का शिकार बना मेधावी ब्राह्मण कुमार अपने लोहार सहपाठी के साथ जो वर्गीय एकजुटता महसूस करता है, और उसका व्यक्तित्व-विकास जातिगत आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे की जगह मेहनतकशों के जिस सच्चे भाईचारे की प्रस्तावना करता है, वह कहानी के केंद्र में होने के बावजूद जरा भी मुखर नहीं है। उसे अमुखर बनाए रखने का सूक्ष्म कला-विवेक यदि शेखर जोशी में न होता, तो शायद कहानी का कथ्य ज्यादा व्यापक स्तर पर ‘सुना’ जाता। इसलिए यह कहना गलत न होगा कि ‘गलता लोहा’ अपने कला-विवेक की ही बलि चढ़ गई। वैसे शेखर जोशी की कई दूसरी कहानियों की तरह ही यह कहानी भी किसी ‘दिखनेवाली’ कला से प्रायः अछूती है—प्रकट रूप में लगभग कलाविहीन। पूर्वदीप्ति एक बहुप्रयुक्त तकनीक को छोड़ दें तो कलायुक्तियों का सचेत उपयोग बिल्कुल दिखलाई नहीं पड़ता। नाटकीय शैली यानी दृश्यात्मक प्रविधि बहुत कम अंशों में है; पूरी कहानी पर घटनाओं की पिछली श्रृंखला बताते जाने की शैली यानी परिदृश्यात्मक प्रविधि हावी है। मतलब यह कि कलात्मक निर्वाह के अभाव की शिकायत बड़ी आसानी से की जा सकती है, अगर आप कला को उसके दृश्यमान उपादानों से ही पहचानते हों, तो। पर यदि आप कथात्मक विधाओं के अंदर ऊंची आवाज में न बोलने को एक महत्त्वपूर्ण कला मानते हैं, तो वह ‘गलता लोहा’ में है। यहां स्थितियों के मध्य संबंध को रेखांकित करते हुए लेखक बहुत बारीक रेखाओं का उपयोग करता है और कहीं कमजोर निगाहों से ये रेखाएं ओझल न रह जाएं, इस डर से उनकी बारीकी के साथ कोई समझौता नहीं करता। यहां तक कि शीर्षक जिस प्रतीकार्थ को अपने में समेटे हुए है, उसकी ओर भी कोई इशारा स्पष्ट तौर पर कहानी के भीतर मौजूद नहीं है। उसे कहानी के मर्म के साथ जोड़ कर पढ़ने, या उसी की रोशनी में कहानी का मर्म निर्धारित करने का पूरा दारोमदार पाठक पर है। पाठक से मर्मज्ञता की मांग करनेवाले इस निर्वाह को अगर हम कलात्मक न मानें, तो निश्चित रूप से पच्चिकारियों को ही कला का एकमात्र नमूना मानना पड़ेगा।
वस्तुतः शेखर जोशी की कहानियां बड़ी मजबूती से कला और सौंदर्य की गैररूपवादी धारणा पर टिकी हुई हैं। उनके कलात्मक सौंदर्य की सत्ता अंतर्वस्तु के ऐतिहासिक, सामाजिक और नौतिक संदर्भ से परे नहीं है। ‘सिनारियो’ में वृत्तचित्र बनानेवाला युवक, रवि एक पहाड़ी गांव में पहुंचा है। सूर्यास्त के समय सिंदूरी आभा से नहाया हुआ हिमालय का हिम-विस्तार देख वह मंत्र-मुग्ध हो जाता है। हिमालय की इसी शोभा को पर्दे पर जीवंत करने के लिए वह पहाड़ों में आया है। कमेंट्री, पार्श्व-संगीत, कालिदास से लेकर पंत तक की काव्य-संपदा का उपयोग—इन सब पर उसने खासा अनुसंधान और चिंतन कर रखा है। जिस घर में वह ठहरा है, वहां प्रारूपिक पहाड़ी दरिद्रता के बीच एक बूढ़ी आमां और उसकी बारह-तेरह साल की पोती रहती है। रात को सोने के बाद सुबह-सुबह पता चलता है कि चीड़ के कोयले में दबी आग चूल्हे में बची नहीं रह पाई है और माचिस रखना महंगा पड़ता है, इसलिए चाय बनाने के लिए आग का इंतजाम करने की समस्या है। थोड़ी देर बाद रवि देखता है कि आमां की पोती, सरुली एक पीतल की कलछुल लिए एक पगडंडी के रास्ते कहीं जा रही है। फिर उसी रास्ते वह कलछुल में आग लिए लौटती दिखलाई पड़ती है। घर के पास पहुंचते-पहुंचते अचानक किसी वजह से वह अपना संतुलन खो बैठती है और दूर के बड़े मकान से मांग कर लाए गए अंगारे तुषार भीगी धरती पर बिखर जाते हैं। लगभग बुझ चले अंगारों को जल्दी-जल्दी उठाकर वह कलछुल में रखती है और उन्हें फूंकती हुई घर की ओर भागती है।
दबे पांव चलने वाली कहानियां के सृजेता शेखर जोशी उसी उभार के एक सशक्त प्रतिनिधि हैं। उनका शुमार ‘नई कहानी’ में सामाजिक सरोकारों का प्रतिबद्ध स्वर जोड़ने वाले कहानीकारों में होता है। ‘दाज्यू’, ‘कोसी का घटवार’, ‘बदबू’, ‘मेंटल’ जैसी उनकी कहानियों ने न सिर्फ उनके मुरीदों और प्रशंसकों की एक बड़ी जमात तैयार की है, बल्कि ‘नई कहानी’ की पहचान को भी अपने तरीके से प्रभावित किया है। पहाड़ी इलाकों की गरीबी और कठिन जीवन-संघर्ष; उत्पीड़न, यातना, प्रतिरोध, उम्मीद और नाउम्मीदी से भरे औद्योगिक मजदूर वर्ग के हालात; शहरी-कस्बाई निम्न और मध्यम मध्यवर्ग के आर्थिक-सामाजिक-नैतिक संकट; धर्म और जाति से जुड़ी घातक रूढ़ियाँ; दैनन्दिन स्थितियों का वर्गीय चरित्र-ये सभी उनकी कहानियों का विषय बनते रहे हैं। ‘मूड’ को आधार बनाने की बजाय घटनाओं और ठोस ब्यौरों में किस्सा कहने वाले शेखर जोशी ने इन सभी विषयों को लेकर ऐसी कहानियां लिखी हैं, जो एक ओर विचार-केंद्रित कृतिम गढ़ंत से मुक्त हैं, तो दूसरी और ‘अनुभव की प्रामाणिकता’ और ‘भोगा हुआ यथार्थ’ के संकरे आशय से भी। इस लिहाज से वे अमरकांत और भीष्म साहनी की तरह घातक अतियों से कहानी का बचाव करने वाले रचनाकार हैं।
शेखर जोशी हिन्दी के सबसे मितभाषी कथाकारों में से हैं। उनका कुल लेखन बमुश्किल दो स्वस्थ जिल्दों के लायक है। उपन्यास की जमीन पर उन्होंने खाता ही नहीं खोला और कहानियों की संख्या भी शतक से काफी पीछे है—संकलित और असंकलित, सब मिलाकर साठ-पैंसठ के करीब। ये तो शुक्र है कि साहित्य की दुनिया में क्रिकेट का तर्क नहीं चलता, वरना वे इस दुनिया से कब के निकाल बाहर किए जाते !
लेखन का अल्प-परिणाम शेखर जी की मितभाषित का शायद एक और गौरतलब पहलू है। वे वाचक के रूप में अपनी कहानियों के भीतर और कहानीकार के रूप में कहानियों के बाहर भी अधिक नहीं बोलते। यह संकोच उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की पहचान का महत्त्वपूर्ण घटक है...उनकी विशिष्ट पहचान बनने के रास्ते में शायद सबसे बड़ी बाधा भी। मधुरेश जैसे वरिष्ठ कथा-आलोचक को ‘उनके कृतित्व में किसी किस्म की रचनात्मक छलांग का अभाव’ दिखलाई पड़ता है और ऐसा लगता है कि ‘उनके आगे न तो रचनात्मक स्तर पर ही कभी कोई बड़ी चुनौतियां रहीं और न ही अपने सारे वैचारिक आग्रहों के बावजूद संघर्ष और विचार के ऐसे सतेज और प्रखर मुद्दे रहे जो रचनात्मकता में एक अनोखी चमक पैदा करते हैं (नयी कहानी : पुनर्विचार, प्रथम संस्करण: 1999, नेशनल पब्लिसिंग हाउस, नयी दिल्ली, पृ. 178), तो इसका एक बड़ा कारण शेखर जोशी का कम बोलनेवाला और दावेदारी के स्तर पर एक तरह का दब्बूपन बरतनेवाला कथाकार व्यक्तित्व है—ऐसा कथाकार व्यक्तित्व, जो अपने अदृश्य रहने को ही सबसे बड़ा मूल्य मानता है और इसके लिए जो कुछ जरूरी जान पड़े, करता है। मसलन—जिन स्थलों पर सामान्यतः दूसरे लेखकों को ज्यादा शब्दों, ब्यौरों, इशारों, बलाघातों की जरूरत महसूस होती है, वहां से बगैर किसी विशेष ताम-झाम के गुजर जाना; कथा-स्थितियों के अर्थगर्भत्व और स्मृद्धि को समझने/सराहने के लिए पाठक को कोई ‘सर्फेस टेंशन’, ‘धक्का’ या ‘सुराग’ न देना; वाचक की मुद्रा में एक सादगी और साधारणता को बज़िद बनाए रखना, इत्यादि।
ऐसे में ‘बदबू’ ‘मेंटल’, ‘बच्चे का सपना’, ‘नौरंगी बीमार है’, ‘समर्पण’, ‘निर्णायक’, ‘गलता लोहा’, ‘हलवाहा’ जैसी कहानियों के होते हुए भी किसी को ‘रचनात्मकता में एक अनोखी चमक पैदा’ करनेवाले ‘संघर्ष और विचार के सतेज और प्रखर मुद्दों’ का अभाव उनमें दिखलाई दे, तो क्या हैरत !.....वस्तुतः शेखर जोशी की कहानियों का निर्वाह प्रकटतः कलात्मक होने के बजाय उनकी प्रस्तुति की मुद्रा में कोई गहरी बात करने की दावेदारी है। ये कम बोलने और आहिस्ता बोलनेवाली कहानियां हैं—ऐसी कहानियां जो अपने पाठक का सम्मान करती हैं, ज्यादा समझा कर उसकी समझ एवं संवेदनशीलता के प्रति अविश्वास प्रकट नहीं करती, साथ ही, ‘दिखनेवाली’ कलात्मकता से अछूती हैं, जो कि अंतर्वस्तु की गुणवत्ता के प्रति लेखक के पुख्ता आत्मविश्वास का सूचक है।
शेखर जोशी की कई कहानियों को इन बातों के उदाहरण की तरह पढ़ा जा सकता है। फिलहाल इस संग्रह में संकलित एक कहानी ‘समर्पण’ को लें ! यहां लेखक ने प्रतीक-केन्द्रित सामाजिक संघर्ष की गतिकी को जिस तरह से चिह्नित किया है, वह असाधारण है। यज्ञोपवीत-धारण के लिए चलनेवाले अभियान की पूरी प्रक्रिया, उसकी शक्तियां और सीमाएं तथा विचारधारात्मक वर्चस्व की टिकाऊ बनावट—इन सबको एक कहानी में समेटना कोई साधारण बात नहीं ! पर शेखर जोशी का यह ‘समेटना’ इतना असहनीय है कि कहानी की असाधारणता उसमें छुप-सी जाती है और उसे इकहरे तरीके से पढ़ना सिर्फ इसलिए मुमकिन हो जाता है कि लेखक की कथन-भंगिमा उस इकहरे पठन को कहीं से हतोत्साहित नहीं करती। पूरी कहानी प्रतीक पर केंद्रित संघर्ष (नीची जातियों द्वारा जनेऊ-धारण) के उभार और उतार का बयान है और इस सिलसिले में वह प्रतीक-केंद्रित संघर्ष की शक्तियों को विलक्षण तरीके से रेखांकित करने के साथ-साथ उसकी भयावह सीमाओं को भी सामने लाती है। एक आदर्श संतुलन के साथ वह इस बात को चिह्नित करती है कि अगर सामाजिक प्रतीकों की लड़ाई ठोस उत्पादन-संबंधों से जुड़ी लड़ाई का हमकदम या हिस्सा बन कर नहीं आती, तो अपनी पूरी नैतिक शक्ति के बावजूद वह कमोबेस ऐसे ही ट्रैजिक-कॉमिक अंत को प्राप्त होने के लिए अभिशप्त है। ‘सेवक जी की अमृतवाणी मन को संतोष दे गई थी, पर तन को संतोष नहीं दे पाई।’ और इसी चीज ने उस व्यापक जागृति की रीढ़ तोड़ कर रख दी, जिसे देख ‘पर-पौरुख पर निर्भर दीवान वंश के कीर्तिस्तंभ की नींव’ मालिक लोगों को हिलती प्रतीत होने लगी थी। कितनी बड़ी विडंबना है कि मालिक लोगों के बगैर कुछ किए उनकी यह शंका ‘धीरे-धीरे स्वतः ही निर्मूल सिद्ध होने लगी !’ अंततः भेदभाव के जिस प्रतीक को अपने शरीर पर धारण कर शिल्पकारों-हलवाहों ने उसका भेदभावमूलक प्रतीकार्थ नष्ट करना चाहा था, उसे अपने ही हाथों उतार फेंका।
‘गलता लोहा’, ‘बच्चे का सपना’, ‘निर्णायक’ आदि कहानियां भी इसी श्रेणी में आती हैं। गल कर एक नया आकार लेनेवाले धातु की तरह जातिगत पहचान का स्थान वर्गीय पहचान ले रही है, इस कथ्य को बहुत महीन तरीके से सामने लाती है ‘गलता लोहा ’ कहानी। जातिवादी एकजुटता के छद्म का शिकार बना मेधावी ब्राह्मण कुमार अपने लोहार सहपाठी के साथ जो वर्गीय एकजुटता महसूस करता है, और उसका व्यक्तित्व-विकास जातिगत आधार पर निर्मित झूठे भाईचारे की जगह मेहनतकशों के जिस सच्चे भाईचारे की प्रस्तावना करता है, वह कहानी के केंद्र में होने के बावजूद जरा भी मुखर नहीं है। उसे अमुखर बनाए रखने का सूक्ष्म कला-विवेक यदि शेखर जोशी में न होता, तो शायद कहानी का कथ्य ज्यादा व्यापक स्तर पर ‘सुना’ जाता। इसलिए यह कहना गलत न होगा कि ‘गलता लोहा’ अपने कला-विवेक की ही बलि चढ़ गई। वैसे शेखर जोशी की कई दूसरी कहानियों की तरह ही यह कहानी भी किसी ‘दिखनेवाली’ कला से प्रायः अछूती है—प्रकट रूप में लगभग कलाविहीन। पूर्वदीप्ति एक बहुप्रयुक्त तकनीक को छोड़ दें तो कलायुक्तियों का सचेत उपयोग बिल्कुल दिखलाई नहीं पड़ता। नाटकीय शैली यानी दृश्यात्मक प्रविधि बहुत कम अंशों में है; पूरी कहानी पर घटनाओं की पिछली श्रृंखला बताते जाने की शैली यानी परिदृश्यात्मक प्रविधि हावी है। मतलब यह कि कलात्मक निर्वाह के अभाव की शिकायत बड़ी आसानी से की जा सकती है, अगर आप कला को उसके दृश्यमान उपादानों से ही पहचानते हों, तो। पर यदि आप कथात्मक विधाओं के अंदर ऊंची आवाज में न बोलने को एक महत्त्वपूर्ण कला मानते हैं, तो वह ‘गलता लोहा’ में है। यहां स्थितियों के मध्य संबंध को रेखांकित करते हुए लेखक बहुत बारीक रेखाओं का उपयोग करता है और कहीं कमजोर निगाहों से ये रेखाएं ओझल न रह जाएं, इस डर से उनकी बारीकी के साथ कोई समझौता नहीं करता। यहां तक कि शीर्षक जिस प्रतीकार्थ को अपने में समेटे हुए है, उसकी ओर भी कोई इशारा स्पष्ट तौर पर कहानी के भीतर मौजूद नहीं है। उसे कहानी के मर्म के साथ जोड़ कर पढ़ने, या उसी की रोशनी में कहानी का मर्म निर्धारित करने का पूरा दारोमदार पाठक पर है। पाठक से मर्मज्ञता की मांग करनेवाले इस निर्वाह को अगर हम कलात्मक न मानें, तो निश्चित रूप से पच्चिकारियों को ही कला का एकमात्र नमूना मानना पड़ेगा।
वस्तुतः शेखर जोशी की कहानियां बड़ी मजबूती से कला और सौंदर्य की गैररूपवादी धारणा पर टिकी हुई हैं। उनके कलात्मक सौंदर्य की सत्ता अंतर्वस्तु के ऐतिहासिक, सामाजिक और नौतिक संदर्भ से परे नहीं है। ‘सिनारियो’ में वृत्तचित्र बनानेवाला युवक, रवि एक पहाड़ी गांव में पहुंचा है। सूर्यास्त के समय सिंदूरी आभा से नहाया हुआ हिमालय का हिम-विस्तार देख वह मंत्र-मुग्ध हो जाता है। हिमालय की इसी शोभा को पर्दे पर जीवंत करने के लिए वह पहाड़ों में आया है। कमेंट्री, पार्श्व-संगीत, कालिदास से लेकर पंत तक की काव्य-संपदा का उपयोग—इन सब पर उसने खासा अनुसंधान और चिंतन कर रखा है। जिस घर में वह ठहरा है, वहां प्रारूपिक पहाड़ी दरिद्रता के बीच एक बूढ़ी आमां और उसकी बारह-तेरह साल की पोती रहती है। रात को सोने के बाद सुबह-सुबह पता चलता है कि चीड़ के कोयले में दबी आग चूल्हे में बची नहीं रह पाई है और माचिस रखना महंगा पड़ता है, इसलिए चाय बनाने के लिए आग का इंतजाम करने की समस्या है। थोड़ी देर बाद रवि देखता है कि आमां की पोती, सरुली एक पीतल की कलछुल लिए एक पगडंडी के रास्ते कहीं जा रही है। फिर उसी रास्ते वह कलछुल में आग लिए लौटती दिखलाई पड़ती है। घर के पास पहुंचते-पहुंचते अचानक किसी वजह से वह अपना संतुलन खो बैठती है और दूर के बड़े मकान से मांग कर लाए गए अंगारे तुषार भीगी धरती पर बिखर जाते हैं। लगभग बुझ चले अंगारों को जल्दी-जल्दी उठाकर वह कलछुल में रखती है और उन्हें फूंकती हुई घर की ओर भागती है।
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